featured-slider

ads header


 

महाकाल श‍िव की मह‍िमा अपरंपार है। उन्‍हें प्रसन्‍न करने के ल‍िए क‍िसी खास प्रयास या पूजा-पाठ की जरूरत नहीं होती। बल्कि सच्‍ची श्रद्धा और पूरे मन से क‍िया गया प्रयास आपको भोलेनाथ की कृपा का पात्र बना सकता है। शायद यही वजह है क‍ि अपने भक्‍तों के ल‍िए महाकाल ने काल तक को भस्‍म कर दिया था। ऐसी ही एक कथा म‍िलती है हमारे धार्मिक ग्रंथों में ज‍िसे हम आपके साथ शेयर कर रहे हैं। मान्‍यता है क‍ि भक्‍तों का चर‍ित पढ़ने और सुनने से भोलेनाथ की असीम कृपा और पुण्‍य की प्राप्ति होती है। तो आइए जानते हैं

भक्‍त के प्रत‍ि महाकाल की अगाध आस्‍था की ज‍िस कहानी का हम ज‍िक्र कर रहे हैं वह स्‍वयं भगवान कार्तिकेय ने संतों को सुनाई थी। इसके अनुसार राजा श्वेतकेतु जो क‍ि भोलेनाथ के परम भक्‍त थे उन्‍होंने काल को भी जीत‍ ल‍िया था। राजा श्वेतकेतु सदाचारी, सत्यवादी, धर्म के मार्ग पर चलने वाले शूरवीर और प्रजा पालक थे। वह अत्‍यंत ही न‍िष्‍ठा और प्रेम भाव से प्रजा का पालन और अगाध आस्‍था और श्रद्धा भाव से शिव भक्ति करते थे। उनके इस भक्ति भाव से महाकाल अत्‍यंत प्रसन्‍न थे। उनकी कृपा से श्वेतकेतु के राज्य के लोग दुख, दरिद्रता, अकाल मृत्यु और महामारी से अछूते थे।

एक द‍िन जब राजा श्वेतकेतु का जीवनकाल समाप्त होने को था और वह भोलेनाथ की आराधना में लीन थे। तब चित्रगुप्त ने यमराज से कहा कि राजा श्वेतकेतु की आयु अब पूरी हो चुकी है। अब उनके प्राण हरने का समय है। तब यमराज ने अपने दूतों को आज्ञा दी कि वे जाएं और श्वेतकेतु के प्राण हर लाएं। यमदूत राजा श्वेतकेतु के पास पहुंचे तो वह शिव मंदिर में थे। दूत बाहर ही खड़े हो गए। श्वेतुकेतु गहरे ध्यान में थे। बहुत देर हो गई, न श्वेतकेतु का ध्यान टूटा न यह दूत हिले। दूत बिना अपना काम किए खड़े रहे। जब वे वापस नहीं पहुंचे तो यमराज ने विलंब होते देखा तो कालदंड संभाला और खुद चल पड़े।

दूतों के आने में देरी होने के चलते यमराज स्‍वयं ही राजा श्वेतकेतु के प्राण हरने पहुंचे। लेक‍िन वहां उन्‍होंने देखा क‍ि वह तो महादेव की साधना में लीन है। अब तो वह सोच में पड़ गए क‍ि इसके प्राण कैसे हरें? उन्‍होंने सोचा क‍ि यह अभी पूरी तरह शिव पूजा में डूबा है। इस स्थिति में श‍िव पूजा का का उल्लंघन नहीं क‍िया जा सकता। तब वह भी बाहर ही खड़े हो गए। उधर जैसे ही काल को इसकी सूचना म‍िली तो उन्‍होंने तलवार निकाली और शिव मंदिर में जा घुसे। काल ने देखा कि राजा श्वेतुकेतु अभी भी भगवान शिव के लिंग स्वरूप के सामने बैठे ध्यान मग्न हैं। वह झपटकर आगे बढ़ा और जैसे ही उसने राजा श्वेतकेतु का सिर काटने के ल‍िए तलवार उठाई शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर काल की ओर देखा।

भोलेनाथ का तीसरा नेत्र खुलते ही काल वहीं राजा श्वेतकेतु के सामने जलकर भस्म हो गया। थोड़ी देर बाद जब राजा श्वेतकेतु का ध्यान टूटा। उन्‍होंने अपनी आंखें खोलीं तो राख में बदल चुके काल को देखा। उन्हें चिंता हुई कि यह कौन है और क्या है? श्वेतकेतु ने भगवान शिव से पूछा हे भोलेनाथ ये क‍िसकी राख है, इसे क‍िसने और क्‍यों जलाया ? तब भोलेनाथ ने बताया क‍ि यह काल था जो क‍ि तुम्‍हारे प्राण हरने आया था।

राजा श्वेतकेतु ने कहा क‍ि हे महाकाल यह तो आपकी ही आज्ञा से तीनों लोक में विचरता है, लोक को नियंत्रण में रखता है। इसी के भय से तो लोग पुण्य कार्य करते हैं। आप इन्‍हें अत‍िशीघ्र जीवनदान दे दें। श‍िवजी की कृपा से काल जी उठा और उसने उठते ही श्वेतकेतु को अपने गले से लगाकर बोला राजा तुम जैसा तो तीनों लोकों में कोई नहीं है। तुमने तो अजेय काल को भी जीत ल‍िया।

जीवनदान पाकर काल और यमराज ने कहा क‍ि ऐसे जातक जो श‍िवजी के परम भक्‍त हैं। सच्‍चे मन और पूरी श्रद्धा से महाकाल की पूजा में लीन रहते हैं। सिर पर जटा और गले में रुद्राक्ष पहनते हैं। विभूति का त्रिपुंड ललाट पर लगाते और पंचाक्षर मंत्र का जप करते हैं उन्हें कभी भी अकाल मृत्‍यु का ग्रास नहीं बनना पड़ेगा। कथा के अनुसार इस आशीर्वाद के बाद श्वेतकेतु ने लंबे समय तक राज किया और फ‍िर महाकाल की कृपा पाकर उनमें ही व‍िलीन हो गए।

Sunil Saindane July 18, 2025
Read more ...


सदियों पहले, हिमालय की गोद में बसे एक घने वन में वज्रनाथ नामक एक साधक रहता था। वह एक महान तपस्वी था, जिसने सांसारिक मोह-माया को त्याग कर तंत्र साधना का मार्ग अपनाया था। उसकी एक ही अभिलाषा थी—परम सत्य की प्राप्ति और आत्मज्ञान।


तपस्या का आरंभ:

वज्रनाथ एक प्राचीन शिव मंदिर के पास कुटिया बनाकर रहने लगा। वह प्रतिदिन ध्यान और साधना में लीन रहता। उसकी उपासना का एकमात्र उद्देश्य था भगवान भैरव का साक्षात्कार। घोर तपस्या करते-करते उसकी साधना इतनी शक्तिशाली हो गई कि उसे अलौकिक अनुभव होने लगे। कभी वह दिव्य प्रकाश देखता, तो कभी उसे अनसुनी ध्वनियाँ सुनाई देतीं। लेकिन उसने न तो भय को स्थान दिया और न ही अहंकार को।

उसकी तपस्या की अग्नि प्रज्वलित होती रही। उसने न केवल मंत्रों का जाप किया बल्कि अपनी इंद्रियों पर भी नियंत्रण पाया। दिन-रात, गर्मी-सर्दी की परवाह किए बिना, वह एकमात्र लक्ष्य की ओर बढ़ता रहा—भैरव का साक्षात्कार।

भैरव का प्रकट होना:

अनेक वर्षों की कठिन साधना के पश्चात एक अमावस्या की रात जब पूरा जंगल घने अंधकार में डूबा था, वज्रनाथ अपनी ध्यान मुद्रा में बैठा हुआ था। वह पूर्णतः समाधिस्थ था, जब अचानक वायुमंडल में एक तीव्र ऊर्जा प्रवाहित होने लगी। वातावरण में गूंजती हुई तंत्र-मंत्र की ध्वनियाँ और बिजली की चमक ने पूरे जंगल को भयावह बना दिया।

तभी एक दिव्य प्रकाश प्रकट हुआ और उसमें से भगवान भैरव प्रकट हुए। वे रुद्र रूप में थे—तीसरी आँख से विकराल ऊर्जा प्रवाहित हो रही थी, गले में नरमुंडों की माला, हाथ में त्रिशूल और खड्ग। उनका स्वर गर्जना से भरा था, परंतु उसमें दिव्यता भी थी।

उन्होंने वज्रनाथ की ओर देखा और गंभीर स्वर में बोले, “सत्य की राह कठिन है, भय त्यागो।”

वज्रनाथ का हृदय श्रद्धा से भर गया। उसने प्रणाम कर कहा, “भगवान! मैं वर्षों से आपकी साधना कर रहा हूँ। कृपया मुझे ज्ञान प्रदान करें, जिससे मैं अपने भीतर की अज्ञानता को दूर कर सकूँ।”

तंत्र का ज्ञान और भय का नाश

भैरव मुस्कुराए और बोले, "तंत्र केवल शक्ति प्राप्त करने का साधन नहीं है, यह आत्मज्ञान की कुंजी भी है। जो इसे केवल शक्ति के लिए अपनाते हैं, वे अधूरी यात्रा में ही खो जाते हैं। किंतु जो इसे सत्य की खोज में अपनाते हैं, वे स्वयं शिव से एकरूप हो जाते हैं।"

वज्रनाथ ध्यानपूर्वक सुन रहा था। भैरव ने आगे कहा, "शक्ति और शिव एक हैं। जब तक साधक भीतर के भय से मुक्त नहीं होता, तब तक वह पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। भय वह अवरोध है, जो आत्मा को सत्य से दूर रखता है।"

वज्रनाथ ने भैरव के वचनों को हृदय से स्वीकार किया। उसने निश्चय किया कि अब वह न केवल बाहरी शक्ति की खोज करेगा, बल्कि अपने भीतर के अज्ञान और भय का भी नाश करेगा।

अज्ञान पर विजय:

भैरव के दर्शन के पश्चात वज्रनाथ की साधना में और अधिक तीव्रता आ गई। उसने अपने भीतर के समस्त भय को जड़ से समाप्त कर दिया। अब वह मृत्यु से भी नहीं डरता था, क्योंकि उसने समझ लिया था कि जीवन और मृत्यु केवल भ्रम हैं।

धीरे-धीरे, उसकी साधना इतनी सिद्ध हो गई कि वह प्रकृति की गूढ़ शक्तियों को समझने लगा। उसे ब्रह्मांड के रहस्यों का ज्ञान प्राप्त होने लगा। वह अब मात्र एक साधक नहीं, बल्कि एक सिद्ध योगी बन चुका था।

लोक कल्याण की ओर अग्रसर:

अपने आत्मज्ञान की प्राप्ति के पश्चात वज्रनाथ ने संकल्प लिया कि वह इस ज्ञान को लोक कल्याण के लिए प्रयोग करेगा। वह अपने आश्रम में आने वाले शिष्यों को भैरव तंत्र का वास्तविक उद्देश्य समझाने लगा। वह लोगों को यह सिखाने लगा कि तंत्र केवल चमत्कारों या शक्ति अर्जित करने के लिए नहीं, बल्कि आत्म-ज्ञान और आत्म-विकास के लिए है।

धीरे-धीरे, उसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। लोग उसे सिद्ध वज्रनाथ के नाम से जानने लगे। उन्होंने अनेकों को भयमुक्त जीवन जीने की शिक्षा दी और भैरव तंत्र के गूढ़ रहस्यों को समझाकर उन्हें आत्मज्ञान की ओर प्रेरित किया।

कथा से मिलने वाली शिक्षा:

यह कथा हमें सिखाती है कि तंत्र साधना केवल शक्ति प्राप्ति के लिए नहीं होती, बल्कि आत्मज्ञान के लिए होती है। भय को त्यागकर ही हम सत्य के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। भैरव तंत्र हमें यह ज्ञान देता है कि शक्ति और शिव एक ही हैं, और जब हम अपने भीतर की शक्तियों को जाग्रत कर लेते हैं, तो कोई भी अज्ञान या भय हमें रोक नहीं सकता।

वज्रनाथ की तरह यदि हम भी अपने अंदर के भय को समाप्त कर दें और सत्य की खोज में दृढ़ निश्चय कर लें, तो आत्मज्ञान की प्राप्ति संभव है।

सत्य की राह कठिन है, लेकिन जो इसे धैर्य और श्रद्धा से अपनाता है, वही वास्तविक आनंद और मुक्ति को प्राप्त करता है।


 


Sunil Saindane February 03, 2025
Read more ...


भगवान शिव के त्रिशूल का प्रतीकात्मक महत्व🔱


त्रिशूल चेतना के तीन पहलुओं - जागरण, स्वप्न और सुषुप्ति का प्रतिनिधित्व करता है, और यह तीन गुणों - सत्, रज और तम का भी प्रतीक है। त्रिशूल धारण करना यह दर्शाता है कि शिव (दिव्यता) इन तीनों अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे हैं, फिर भी वे इन तीनों अवस्थाओं के धारक हैं।

हिंदू देवता शिव: त्रिशूल भगवान शिव से गहराई से जुड़ा हुआ है, जो हिंदू धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक हैं। शिव को अक्सर त्रिशूल धारण किए हुए दर्शाया जाता है, जो उनकी शक्ति और अधिकार का प्रतीक है। त्रिशूल के तीन कांटे शिव की भूमिका के विभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें सृष्टि, पालन और संहार शामिल हैं। यह ब्रह्मांड में संतुलन और जीवन, मृत्यु तथा पुनर्जन्म के चक्र का प्रतीक है।

संतुलन और सामंजस्य: त्रिशूल को संतुलन और सामंजस्य का प्रतीक माना जाता है। इसके तीन कांटे ब्रह्मांड की तीन मूल ऊर्जाओं या शक्तियों - सतोगुण (शुद्धता), रजोगुण (गतिशीलता), और तमोगुण (जड़ता) का प्रतिनिधित्व करते हैं। त्रिशूल इन शक्तियों के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता को दर्शाता है ताकि जीवन में सामंजस्य बना रहे।

शक्ति और सुरक्षा: त्रिशूल शक्ति और सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है। यह माना जाता है कि त्रिशूल बुराई का नाश कर सकता है और भक्तों को नकारात्मक ऊर्जाओं से बचा सकता है। इसे शक्ति और साहस का प्रतीक माना जाता है, जो बाधाओं को दूर करने और अज्ञानता पर विजय पाने की क्षमता को दर्शाता है।

दिव्य स्त्री शक्ति: कुछ व्याख्याओं में त्रिशूल को दिव्य स्त्री ऊर्जा से जोड़ा जाता है। इसके तीन कांटे हिंदू धर्म की तीन प्रमुख देवियों - दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो क्रमशः शक्ति, समृद्धि और ज्ञान की प्रतीक हैं। त्रिशूल स्त्री ऊर्जा और सृजन, पालन तथा रूपांतरण के बीच संतुलन को दर्शाता है।

आध्यात्मिक विकास: त्रिशूल को आध्यात्मिक विकास के उपकरण के रूप में भी देखा जाता है। इसके तीन कांटे आत्मा की आध्यात्मिक यात्रा के तीन चरणों - शुद्धिकरण, प्रबोधन (ज्ञान) और मोक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह अज्ञान से ज्ञान और अंततः आत्मा की मुक्ति की यात्रा को दर्शाता है।

बुराई से रक्षा: त्रिशूल को एक रक्षात्मक प्रतीक माना जाता है, जो नकारात्मक प्रभावों और बुरी शक्तियों से बचाने में सक्षम है। घरों, मंदिरों और अन्य पवित्र स्थानों के द्वारों पर त्रिशूल प्रतीक को आमतौर पर सुरक्षा और आध्यात्मिक कल्याण सुनिश्चित करने के लिए स्थापित किया जाता है।

मार्शल आर्ट्स (युद्ध कौशल): त्रिशूल कुछ भारतीय मार्शल आर्ट्स, जैसे कि कलारीपयट्टु से भी जुड़ा हुआ है। इन कलाओं में, त्रिशूल को एक हथियार के रूप में उपयोग किया जाता है, जो शक्ति, सटीकता और कौशल का प्रतीक है।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि त्रिशूल का महत्व और इसकी व्याख्याएं विभिन्न क्षेत्रों, परंपराओं और व्यक्तियों के अनुसार भिन्न हो सकती हैं। उपरोक्त विवरण इसके प्रतीकात्मक और सांस्कृतिक महत्व को सामान्य रूप से समझाने के लिए प्रदान किए गए हैं।
Sunil Saindane January 27, 2025
Read more ...

 



बेल पत्र भगवान शिव की पूजा में अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। परंपरा के अनुसार, इसके त्रिदलीय स्वरूप को शिव के त्रिशूल का प्रतीक माना जाता है और यह सृष्टि, पालन और संहार के तीन स्वरूपों को दर्शाता है। शिवलिंग पर बेल पत्र अर्पित करने से पापों का नाश होता है और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते हैं।

पूजा के लिए सही बेल पत्र चुनने के नियम:

1. अतिरिक्त धारियों और चिह्नों से मुक्त हों:

ऐसे बेल पत्र जिन पर अतिरिक्त धारियां, चक्र या वज्र (गर्जन के निशान) हों, उन्हें पूजा में उपयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि ये खंडित माने जाते हैं।

2. संपूर्ण और अखंड पत्ते चुनें:

बेल पत्र कहीं से कटे या फटे हुए नहीं होने चाहिए। पूजा में संपूर्ण, अखंड और सही आकार के पत्ते अर्पित करना श्रेष्ठ माना जाता है।

3. संख्या का ध्यान रखें:

परंपरागत रूप से कई बेल पत्र अर्पित किए जाते हैं, लेकिन यदि अधिक पत्ते उपलब्ध न हों, तो एक साबुत बेल पत्र भी श्रद्धा के साथ अर्पित किया जा सकता है।

4. ताजगी महत्वपूर्ण है:

हमेशा ताजे और स्वच्छ बेल पत्रों का उपयोग करें। सूखे या मुरझाए हुए पत्तों को पूजा में उपयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इन्हें अशुभ माना जाता है।

5. संग्रह का सही समय:

बेल पत्र को एक दिन पहले, विशेष रूप से सुबह के समय तोड़ना सबसे अच्छा माना जाता है। उन्हें साफ पानी से धोकर पूजा के लिए तैयार करें।

6. विशेष दिनों पर तोड़ने से बचें:

धार्मिक मान्यता के अनुसार, अमावस्या और मंगलवार को बेल पत्र तोड़ना वर्जित माना जाता है, क्योंकि इससे पूजा का पूर्ण लाभ नहीं मिलता।

इन नियमों का पालन करके भक्त अपनी पूजा को शुद्ध और फलदायी बना सकते हैं, विशेष रूप से सावन सोमवार जैसे पवित्र अवसरों पर, जो भगवान शिव की उपासना के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं।


Sunil Saindane January 27, 2025
Read more ...

 


भूलाभटका शिव मंदिर


एक घने जंगल में, जहाँ पेड़ सदियों पुराने रहस्य फुसफुसाते थे और नदियाँ प्राचीन धुनें गुनगुनाती थीं, वहाँ भगवान शिव का एक भुला-बिसरा मंदिर था। समय की धुंध ने उसे लताओं से ढक दिया था, और पास के रुद्रपुर गाँव के कुछ ही लोग उसके अस्तित्व के बारे में जानते थे। किंवदंतियाँ कहती थीं कि वहाँ के शिवलिंग से दिव्य प्रकाश निकलता था और मंदिर की घंटी की आवाज़ पहाड़ों तक गूँजती थी।

लेकिन समय बीतने के साथ-साथ श्रद्धा कम होती गई, और मंदिर वीरान हो गया।

एक दिन, एक युवा यात्री अर्जुन, जो जीवन से थका हुआ था, उस भुला हुआ मंदिर पर आ पहुँचा। वह आस्तिक नहीं था, न ही वह किसी चमत्कार की तलाश में था। उसके मन में केवल निराशा थी, क्योंकि उसने अपने परिवार, अपनी संपत्ति और जीवन की आशा सब खो दी थी। जैसे ही उसने मंदिर के चारों ओर उग आई झाड़ियों को हटाया, मंदिर अपनी शांत भव्यता में प्रकट हुआ।

संक्रम में भगवान शिव की विशाल प्रतिमा खड़ी थी, धूल से ढकी हुई, लेकिन फिर भी एक रहस्यमय आभा बनाए हुए थी। अर्जुन ने शिव के शांत चेहरे को देखा—उनकी जटाओं में अर्धचंद्र, गले में लिपटा नाग, और तीसरी आँख जो मानो उसकी आत्मा में झाँक रही हो। एक अजीब शांति ने उसे घेर लिया। वह मूर्ति के सामने घुटनों के बल बैठ गया, प्रार्थना में नहीं, बल्कि समर्पण में।

जैसे ही उसने शिवलिंग को छुआ, अचानक एक तेज़ हवा मंदिर में बहने लगी, और उसके साथ अगरबत्ती और कपूर की सुगंध फैली—एक भूली हुई भक्ति की महक। तभी एक गूंजती हुई आवाज़ सुनाई दी, "बेटा, यहाँ क्यों आए हो?"

अर्जुन घबरा गया। उसने चारों ओर देखा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। कांपते हुए उसने धीरे से कहा, "मैं... मैं नहीं जानता। मैंने सब कुछ खो दिया है। अब मुझे कुछ नहीं चाहिए।"

आवाज ने हँसते हुए कहा, "जो कुछ नहीं चाहता, वही सब कुछ पाने के सबसे करीब होता है। बैठो और अपने भीतर की शांति को सुनो।"

कुछ अजीब सा हुआ। अर्जुन वहीं बैठ गया, अपनी आँखें बंद कर लीं। मंदिर की शांति ने उसे घेर लिया और पहली बार, उसका मन शांत हो गया। समय बीतता गया। धीरे-धीरे उसने मंदिर की सफाई शुरू कर दी, दीप जलाने लगा, और वे प्रार्थनाएँ गाने लगा जिन्हें उसने कभी सीखा भी नहीं था।

गाँव में यह खबर फैलने लगी कि एक अजनबी मंदिर को पुनः जीवित कर रहा है। धीरे-धीरे लोग आने लगे, और जो मंदिर एक समय वीरान पड़ा था, वहाँ अब फिर से भजन गूँजने लगे। अर्जुन, जो कभी अपना उद्देश्य खो चुका था, अब मंदिर का संरक्षक बन चुका था।

एक शाम, जब अर्जुन मंदिर की घंटी बजाने के लिए खड़ा था, उसने देखा कि दूर एक वृद्ध व्यक्ति उसे देख रहा है। उसके चेहरे में अर्जुन को अपने पिता की झलक दिखाई दी। अर्जुन का दिल तेज़ धड़कने लगा। उसके पिता तो कई वर्षों पहले गुजर चुके थे। यह कैसे संभव था?

वृद्ध आदमी धीरे से बोला, "बेटा, तुमने अपना रास्ता पा लिया है। लेकिन याद रखना, शिव केवल मंदिर में नहीं हैं—वे तुम्हारे भीतर हैं, सबके भीतर हैं।"

अर्जुन की आँखों से आँसू बहने लगे। जब उसने दोबारा देखा, तो वृद्ध व्यक्ति गायब हो चुका था। क्या यह एक सपना था? एक दर्शन था? या स्वयं भगवान शिव उसे राह दिखाने आए थे?

उस दिन से, अर्जुन ने मंदिर की घंटी को ज़ोर से बजाया, और उसकी गूँज पहाड़ों में फैल गई। गाँव वाले, जो भक्ति भूल चुके थे, मंदिर में वापस लौट आए।

धीरे-धीरे, भुला हुआ मंदिर फिर से श्रद्धा का केंद्र बन गया। श्रद्धालु आने लगे, अपनी परेशानियाँ भगवान शिव को अर्पित करने लगे और शांति पाकर लौटने लगे। अर्जुन, जो कभी खोया हुआ था, शिव की शरण में अपनी पहचान पा चुका था।

मंदिर फिर से जीवित हो गया, और अर्जुन की आत्मा भी, यह साबित करते हुए कि शिव को समर्पण में कोई हानि नहीं, बल्कि अनंत संभावनाएँ मिलती हैं।


Sunil Saindane January 26, 2025
Read more ...

भगवत गीता के अध्याय 15, श्लोक 14 का यह श्लोक इस प्रकार है:

Sanskrit:

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:।

प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।

Hindi :

अर्थ: "मैं सभी प्राणियों के शरीर में स्थित वैश्वानर अग्नि के रूप में प्रकट होकर, प्राण (श्वास) और अपान (उच्छ्वास) के संयोग से चार प्रकार के आहार को पचाता हूँ।"

व्याख्या: इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण यह बता रहे हैं कि वे सभी जीवों के शरीर में पाचन अग्नि (वैश्वानर अग्नि) के रूप में निवास करते हैं। वे प्राण (अंदर की हवा) और अपान (बाहर की हवा) के मिलन से चार प्रकार के आहारों को पचाते हैं। यहाँ चार प्रकार के आहार का अर्थ है – ठोस, तरल, अर्ध-ठोस, और अन्य प्रकार के आहार जो हम खाते हैं। भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक के माध्यम से यह दर्शाते हैं कि वे न केवल सृष्टि के रचनाकार हैं, बल्कि हमारे शरीर के आंतरिक कार्यों में भी सक्रिय रूप से मौजूद हैं, जैसे कि पाचन प्रक्रिया।



Sunil Saindane January 25, 2025
Read more ...

The snake around Shiva's neck holds great significance in Hindu mythology and represents various aspects. Here are some of the key meanings associated with the snake around Shiva's neck


  1. Kundalini Energy: The snake symbolizes Kundalini, a dormant spiritual energy believed to be coiled at the base of the spine. Shiva's neck represents the central channel or Sushumna, through which this energy ascends when awakened. The snake around Shiva's neck signifies the awakened Kundalini energy and its union with higher consciousness.

  2. Renunciation of Desires: The snake serves as a reminder of Shiva's renunciation of worldly desires and attachments. It represents his mastery over the instinctual and sensual aspects of human nature. The snake's position around his neck signifies his control over the poisonous or negative aspects of existence.

  3. Cosmic Balance: The snake represents the dualistic nature of creation, symbolizing both creation and destruction. Shiva, as the destroyer deity, wears the snake as a representation of his power to dissolve and transform the universe. It signifies the cyclical nature of existence, where creation and destruction are intertwined and necessary for cosmic balance.

  4. Immortality and Timelessness: Snakes are often associated with immortality and eternity due to their ability to shed their skin and renew themselves. The snake around Shiva's neck signifies his transcendence of time and mortality. It represents his eternal and timeless nature as the supreme consciousness beyond the cycle of birth and death.

  5. Cosmic Serpent: In some interpretations, the snake around Shiva's neck is seen as a cosmic serpent representing the primordial energy that pervades the universe. It symbolizes the interplay of cosmic forces and the connection between the divine and material realms.

Overall, the snake around Shiva's neck is a powerful symbol that represents Shiva's mastery over desires, his connection to spiritual energy, and his role in the cosmic order. It embodies various aspects of his divine nature and serves as a reminder of the deeper spiritual truths and mysteries of existence

Sunil Saindane June 15, 2023
Read more ...